Monday, January 19, 2009
*****डर*****
इंसान थे हम,
देवता बना पूजते रहे 'वो
बेखबर इस बात से
कि पत्थरों की भी उम्र होती है
टूट के बिख्ार जाने पर
पूजने वाले पहचानते भी नहीं.
*****डर*****
मैं डरता हूँ अपने से
अपने सपने से
अपनी चाहत से
अपने ख्य्लात से
अपने रिश्तो से
अपने अस्तित्व से
अपने साथ जुडी आस्था की डोर से
समाज की बेडियों से डरता हूँ
माँ के आंचल की छाँव खोने से डरता हूँ
बच्चो के भविष्य,आशाओं से डरता हूँ
जीवन संगनी को दिए सात वचनों से डरता हूँ
दोस्तों का प्यार खोने को डरता हूँ
वक़्त से डरता हूँ
टूटन से डरता हूँ
थकान से डरता हूँ
खुद से डरता हूँ
खुद को खोने से डरता हूँ
स्वर्णिम परिधान पहनकर
नये वर्ष का है आवर्तन,
रवि रश्मियाँ करती हैं
आशाओं की ज्योति संचरण।
धवल चांदनी खिल-खिलकर,
भरती जीवन में आकर्षण,
रजनीगंधा की सुगंधि भर
प्रकृति करती अभिनंदन।
जीवन सुखमय बन जाए
क्षण-क्षण हो सुख परिपूरन,
ॠध्दि-सिध्दि नित करने आएँ
तव द्वार पर प्रति पल वंदन।
स्वास्थ्य, समृध्दि, सफलता
करें आजीवन प्रत्यावर्तन,
इंद्रधनुषी स्वप्न तुम्हारे
पा जाएँ संबल संकर्षण।
परिवार हो सुखमय क्षण-क्षण
सुख बन जाए तव जीवनधन,
वाणी वीणा लेकर गाए
नये वर्ष का मंगलाचरण''..