Monday, January 19, 2009

मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ अपने प्रकाश की रेखा तम के तट पर अंकित है निःसीम नियति का लेखा देने वाले को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर पल भर सुख भी देखा फिर पल भर दुख भी देखा । किस का आलोक गगन से रवि शशि उडुगन बिखराते? किस अंधकार को लेकर काले बादल घिर आते? उस चित्रकार को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर देखा है चित्रों को बन-बनकर मिट-मिट जाते । फिर उठना, फिर गिर पड़ना आशा है, वहीं निराशा क्या आदि-अन्त संसृति का अभिलाषा ही अभिलाषा? अज्ञात देश से आना, अज्ञात देश को जाना, अज्ञात अरे क्या इतनी है हम सब की परिभाषा ? पल-भर परिचित वन-उपवन, परिचित है जग का प्रति कन, फिर पल में वहीं अपरिचित हम-तुम, सुख-सुषमा, जीवन । है क्या रहस्य बनने में ? है कौन सत्य मिटने में ? मेरे प्रकाश दिखला दो मेरा भूला अपनापन । देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो औ' जानो इसको, उसको, सम्भव हो निज को पहचानो लेकिन अपना चेहरा जैसा है रहने दो, जीवन की धारा में अपने को बहने दो तुम जो कुछ हो वही रहोगे, मेरी मानो । वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो लेकिन अचरज इतना, तुम कितने भोले हो ऊपर से ठोस दिखो, अन्दर से पोले हो बन कर मिट जाने की एक तुम कहानी हो । पल में रो देते हो, पल में हँस पड़ते हो, अपने में रमकर तुम अपने से लड़ते हो पर यह सब तुम करते - इस पर मुझको शक है, दर्शन, मीमांसा - यह फुरसत की बकझक है, जमने की कोशिश में रोज़ तुम उखड़ते हो । थोड़ी-सी घुटन और थोड़ी रंगीनी में, चुटकी भर मिरचे में, मुट्ठी भर चीनी में, ज़िन्दगी तुम्हारी सीमित है, इतना सच है, इससे जो कुछ ज्यादा, वह सब तो लालच है दोस्त उम्र कटने दो इस तमाशबीनी में । धोखा है प्रेम-बैर, इसको तुम मत ठानो कडु‌आ या मीठा ,रस तो है छक कर छानो, चलने का अन्त नहीं, दिशा-ज्ञान कच्चा है भ्रमने का मारग ही सीधा है, सच्चा है जब-जब थक कर उलझो, तब-तब लम्बी तानो ।

कल सहसा यह सन्देश मिला सूने-से युग के बाद मुझे कुछ रोकर, कुछ क्रोधित हो कर तुम कर लेती हो याद मुझे । गिरने की गति में मिलकर गतिमय होकर गतिहीन हुआ एकाकीपन से आया था अब सूनेपन में लीन हुआ । यह ममता का वरदान सुमुखि है अब केवल अपवाद मुझे मैं तो अपने को भूल रहा, तुम कर लेती हो याद मुझे । पुलकित सपनों का क्रय करने मैं आया अपने प्राणों से लेकर अपनी कोमलताओं को मैं टकराया पाषाणों से । मिट-मिटकर मैंने देखा है मिट जानेवाला प्यार यहाँ सुकुमार भावना को अपनी बन जाते देखा भार यहाँ । उत्तप्त मरूस्थल बना चुका विस्मृति का विषम विषाद मुझे किस आशा से छवि की प्रतिमा ! तुम कर लेती हो याद मुझे ? हँस-हँसकर कब से मसल रहा हूँ मैं अपने विश्वासों को पागल बनकर मैं फेंक रहा हूँ कब से उलटे पाँसों को । पशुता से तिल-तिल हार रहा हूँ मानवता का दाँव अरे निर्दय व्यंगों में बदल रहे मेरे ये पल अनुराग-भरे । बन गया एक अस्तित्व अमिट मिट जाने का अवसाद मुझे फिर किस अभिलाषा से रूपसि ! तुम कर लेती हो याद मुझे ? यह अपना-अपना भाग्य, मिला अभिशाप मुझे, वरदान तुम्हें जग की लघुता का ज्ञान मुझे, अपनी गुरुता का ज्ञान तुम्हें ।।

ब्लोग कि कसम .........