Wednesday, January 21, 2009

मैं नहीं जानता कौन थी वो

मैं नहीं जानता कौन थी वो क्या रिश्ता था मेरा उसका । समझ नहीं आता, जान नहीं पाता किसी भी एक रिश्ते में ढाल नही पाता । किसी दिन जब मैं उससे रुठ जाता दोस्त बन अपने कान पकड़ मनाया करती थी वो । जब मैं जीवन से निराश होता भविष्य से उदास होता मैडम बन जीवन से लड़ना सिखाती थी वो । कभी कभी आँखें बँद कर मुँह खोलने को कहती प्रेमिका बन मुँह में हरी मिर्च डाल भाग जाया करती थी वो। कभी कभी गुड्डे गुड़िया का खेल खेलने का मन करता था पत्नी बन, रख गोद में सिर मेरा, बना बालों को काले बादल, मेरे तपते चेहरे पर जम कर बरसा करती थी वो । भूख लगती थी जब मुझे जोरों से माँ बन, अपने हाथों से रोटी बना खिलाया करती थी वो । जब भी मुझे किताबें लाने के लिए पैसे की कमी पड़ जाती पिता बन टयूशन पढ़ाकर कमाये पैसों में से पैसे दिया करती थी वो । मगर दार्शनिक बन एक दिन बोली " अपना जीवन अपना नहीं दूसरों का भी होता हैं " मैं देख रहा था किसी अनहोनी को उसकी सुजी हुई लाल आँखो में । बेटी बन फिर वो बोली " मैं दूर कहाँ जा रही हूँ, यही हूँ तुम्हारे पास, जब बुलाओगे दोड़ी चली आऊँगी " मैं उसको बुला ना सका वह लौट कर आ ना सकी ।

ब्लोग कि कसम .........