सूचना के अधिकार अधिनियम , 2005 की धारा 8(१)(बी) में ऐसी सूचनाएं जिनके प्रकाशन पर किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा अभिव्यक्त रूप से प्रतिबन्ध लगाया गया हो या जिसके प्रकटन से न्यायालय की अवमानना होती हो, उसके सार्वजनिक किए जाने पर रोक लगाई गई है। अगर कोई मामला किसी कोर्ट में निर्णय के लिए विचारधीन है, इसका यह कदापि अर्थ नहीं है कि उससे सम्बंधित कोई सूचना नहीं मांगी जा सकती। विचाराधीन मामलों के संबंध में कोई सूचना सार्वजनिक किए जाने से कोर्ट की अवमानना हो, यह जरूरी नहीं है। हां, कोई विशेष सूचना जो कोर्ट ने स्पष्ट तौर पर सार्वजनिक किए जाने पर रोक लगा दी हो, अगर उसे सार्वजनिक किए जाने की बात होगी तो कोर्ट की अवमानना जरूर होगी।
गोधरा जांच के दौरान उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में रेल मंत्रालय को विशेष तौर पर निर्देश दिए थे कि गोधरा नरसंहार की जांच रिपोर्ट संसद के समक्ष प्रस्तुत न करें। आदेश के माध्यम से न्यायालय ने रिपोर्ट के सार्वजनिक किए जाने पर रोक लगा दी। उपरोक्त सूचना के दिए जाने से कोर्ट की अवमानना भी हो सकती और धरा 8(१)(बी) का उल्लंघन भी।
ऐसे मुद्दों पर निर्णय देते वक्त अधिकारियों को केवल वही सूचनाएं देने से मना करनी चाहिए जो न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर सार्वजनिक किए जाने को निषिद्ध कर रखा हो। कुछ मामलों में देखने में आ रहा है कि सरकारी अधिकारी इस धारा का इस्तेमाल सूचना नहीं देने के बहाने के रूप में धड़ल्ले से कर रहे हैं। दिल्ली पुलिस का तो यह तकिया कलाम बनता जा रहा है। गोपाल ने डीसीपी (दक्षिण) के पास अपने सात साल के बेटे के साथ हुए अमानवीय दुष्कर्म की एफआईआर दर्ज कराई। गोपाल का आरोप था कि पुलिस ने ले-देकर मामला रफा-दफा कर दिया। दो-तीन महीने बीत जाने के बाद भी आरोपी फरार था। उसके घर का पता दिए जाने के बावजूद पुलिस ने तफ्तीश में गंभीरता नहीं दिखाई। जब आरटीआई दायर की गई तो पुलिस ने कानून की धारा 8(१)(बी) लगा दी।
अफरोज ने एम्स और दिल्ली पुलिस से बाटला हाउस एन्काउंटर के दौरान मारे गए तथाकथित आतंकियों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट, एफआईआर की कॉपी, दिल्ली में हुए सीरियल धमाकों की तफ्तीश के दौरान गिरफ्तारी आदि की जानकारी मांगी थी। जवाब में बताया गया कि मामला न्यायालय में विचाराधीन है और सूचना नहीं दी जा सकती जबकि कोर्ट के द्वारा सूचना सार्वजनिक नहीं किए जाने के संबंध में दिया गया ऐसा कोई भी आदेश प्रकाश में नहीं आया।
ऐसे समय में जब सूचना न देना एक नजीर बनती जा रही हो, सूचना आयुक्तों की भूमिका बहुत बढ़ जाती है और इस भूमिका को आयुक्तों ने बखूबी निभाया है। यहां तक कि सूचना न दिलवाने के लिए मशहूर आयुक्त (भूतपूर्व) पदमा बालासुब्रमण्यम ने भी लीक से हटकर अधिकांश मामलों में सूचनाएं दिलवाईं हैं। पिछले एक साल में इस मुद्दे पर केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा दिए गए कुछ फैसलों को देखने से तो यही नतीजा निकलता दिखाई देता है। मुख्य केन्द्रीय सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने भूतपूर्व पेट्रोलियम मंत्री कैप्टन सतीश शर्मा के बारे में मांगी गई सूचना के संबंध में आयोजित की गई फुल बैंच सुनवाई के दौरान बकायदा सूचनाएं सार्वजनिक किए जाने के पक्ष में 5-6 पेजों में विस्तार से स्पष्टीकरण दिया। साथ ही यह भी बताया कि अपीलार्थी ने क्षतिपूर्ति की मांग नहीं की थी, यदि की होती तो वह भी दिलवाई जाती। सूचना तो बहरहाल दिलवाई ही गई।
क्या कहती है कानून की धारा
सूचना के अधिकार कानून में कोर्ट की अवमानना को परिभाषित नहीं किया गया है। इसे समझने के लिए न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 का सहारा लिया जा सकता है। अधिनियम की धारा 2(ए)(बी) और (सी) में बताया गया है कि-
ए- दीवानी या फौजदारी दोनों तरह से कोर्ट की अवमानना हो सकती है।
बी- यदि किसी कोर्ट के निर्णय, डिक्री, आदेश, निर्देश, याचिका या कोर्ट की किसी प्रक्रिया का जानबूझकर उल्लंघन किया जाए या कोर्ट द्वारा दिए गए किसी वचन को जानबूझकर भंग किया जाए तो यह कोर्ट की दीवानी अवमानना होगी।
सी- किसी प्रकाशन, चाहे वह मौखिक, लिखित, सांकेतिक या किसी अभिवेदन या अन्य किसी माध्यम या कृत्य द्वारा-
1- बदनाम या बदनाम करने की कोशिश या अभिकरण या कोर्ट को नीचा दिखाने की कोशिश की जाए या
2- किसी न्यायिक प्रक्रिया में पक्षपात या हस्तक्षेप
3- न्याय व्यवस्था को किसी प्रकार से हस्तक्षेप या बाधित करना या बाधित करने की कोशिश करना।