Wednesday, March 18, 2009

मेरे शहर की स्त्रियां......

मेरे शहर की स्त्रियां...... न फेमिनिस्ट, न कॉरपोरेट न ये करती हैं बड़े-बड़े दावे-प्रतिदावे, धर्मशास्त्रों, रूढ़ियों ने इन्हें नहीं सिखायीं आदिम वर्जनाएं. गली-कूंचों, सौंदर्य प्रतियोगिताओं और किटी पार्टियों से न रहा कभी इनका कभी कोई सरोकार, कर्मकाण्डों के शहर में ढहाए हैं इन्होंने पितृसता-पुरोहिती के पाखंड, दिए अर्थियों को कंधे, चिता को मुखाग्नि, किए माता-पिताओं के अंतिम संस्कार तर्पण और पितरों के श्राद्ध. मेरे शहर की स्त्रियां........ तनिक भी शर्मातीं-सकुचातीं नहीं हैं साफ-साफ कर देती हैं शराबी दूल्हेसंग शादी से इन्कार घोड़ी पर होकर सवार खुद गाजे-बाजे के साथ पहुंच जाती हैं दूल्हे के दरवाजे, पिता करते हैं बहुओं की आगवानी, पूजते हैं इनके पाँव, कभी नहीं हुआ यहां की शादियों में मंत्रोच्चार, न ली इन्होंने सात फेरों की शपथ, सिर्फ जयमाल, सिन्दूरदान, स्वयंवर भी रचा लेती हैं कभी-कभार पूछती हैं सवाल और खुद चुन लेती हैं जीवनसाथी यहां की विधवाएं खूब करती हैं साज श्रृंगार हाथों में मेंहदी, कलाइयों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ, माथे पर बिंदिया और खूबसूरत परिधान. और-तो-और इस शहर की काजी हैं शबनम अपने लकवाग्रस्त पिता की सातवीं संतान शरीयत का है इन्हें अच्छी तरह ज्ञान. मेरे शहर की स्त्रियां..... बात-बात पर करती हैं जिरह, क्यों बांधे जाते हैं कलावे लड़कों के दाएं, लड़कियों के बाएं हाथ में? जनेऊ क्यों नहीं पहन सकतीं हम स्त्रियां? अंतर और मायने बताइए स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और महिला दिवस के? इन्हें मालूम हैं गांव-शहर के फर्क भी, दोनों जगह की औरतों की आजादियों के मतलब, दोनों को चाहिए अपनी-अपनी स्वतंत्रताएं और तुरंत चाहिए, कल या परसों नहीं. दोनों के मुद्दे हैं एक-से आर्थिक सुरक्षा. इन्हें भी चाहिए खुद कमाने, खुद खर्चने का पूरा अधिकार. इस शहर की स्त्रियां हर बार महिला दिवस पर पूछती हैं एक ही सवाल... इस दिन हमारे नारी संगठन क्यों नहीं जाते वेश्या टोलियों में? उनसे ज्यादा किसका होता है शोषण और दमन? ये अक्सर पूछती हैं कि हमारे देश में और कहां-कहां हैं पाटन जैसे टीचर्स ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट? वे छह अध्यापक और वे किशोरियां थीं किस माता पिता की बेटियां? और किन-किन विद्यालयों में हो रही है वैसी पढ़ाई-लिखाई? और कहां-कहां बच्चियों के आदमखोर पहुंचे जेल की सलाखों के पीछे? ये स्त्रियां कहती हैं कि हत्यारे से ज्यादा भयानक होता है बलात्कारी. ये अपनी बच्चियों को रोजाना पढ़ाती हैं उनसे मुकाबले का पाठ. मेरे शहर की स्त्रियां..... सिर्फ घरों के भीतर नहीं होतीं शासन और समर में रखती हैं ज्यादा विश्वास, यहां के लोग कहते हैं इन्हें वीरांगना, और ये रही इनकी नामावली बेगम हजरत महल रहीमी, हैदरीबाई, ऊदा देवी, आशा देवी, रनवीरी, शोभा, महावीरी, सहेजा, नामकौर, राजकौर, हबीबा गुर्जरी, भगवानी, भगवती, इन्द्रकौर और कुशल देवी, जमानी बेगम, लक्ष्मीबाई, झलकारीबाई, मोतीबाई, काशीबाई जूही, दुर्गाबाई रानी चेनम्मा और लाजो, रानी राजेश्वरी और बेगम आलिया रानी तलमुंद कोइर ठकुराइन सन्नाथ कोइर सोगरा बीबी और अजीजनबाई मस्तानीबाई मैनावती और अवन्तीबाई महावीरी, चौहान रानी, वेद कुमारी और आज्ञावती सत्यवती, अरुणा आसफ अली देवमनियां और ‘माकी’ रानी गुइंदाल्यू, प्रीतिलता, कल्पनादत्त शान्ति घोष और सुनीति चौधरी सुहासिनी अली और रेणुसेन ‘दुर्गा भाभी’, सुशीला दीदी बेगम हसरत मोहानी सरोजिनी नायडू कमला देवी चट्टोपाध्याय बाई अमन अरुणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी मातंगिनी हाजरा और कस्तूरबा गाँधी डा0 सुशीला नैयर, विजयलक्ष्मी लक्ष्मी सहगल, मानवती आर्या एनीबेसेन्ट, मैडम भीकाजी कामा भगिनी निवेदिता मीरा बहन आदि-आदि. मेरे शहर की स्त्रियां..... चिट्ठों और गोष्ठियों में करती हैं शब्दबेधी टिप्पणियां उनके पायतने खड़े पुरुष पूछते हैं उनसे आएदिन कि हम धर्म के रास्ते चलें, कोई समस्या तो नहीं? उफ्! इस कदर अन्धविशवास!! तब उन्हें समझाती हैं ये सृष्टि विकास का परिणाम है न किसी खुदा न ईश्वर का, पुरुष के नियम ईश्वर के नहीं, सेवा नहीं कोई स्त्री-धर्म, अब नहीं होना चाहतीं ये वाचिक मानसिक, शारीरिक हिंसा का शिकार इसीलिए ये कभी नहीं मनातीं रक्षाबन्धन, करवा चौथ, अहोई चिंदी-चिंदी खोद डालीं हैं इन्होंने अपने-अपने अंधविश्वासों की जड़ें तोड़ डाली हैं अपने पैरों की बेड़ियाँ चाहे इन्हें कोई कुलक्षिणी कहे या नयनतारा। ये है ब्लॉग मुह्फत की पेसकस

ब्लोग कि कसम .........